यूं कई भूखंे जब रात में तड़पती हैं
सुबह किस दहलीज1 तक पहुंचती हैं
जहाँ चाँद न हो और जुगनू का शमा
रात ऐसे में कैसे करवटें बदलती है
मुर्गे की तरह दर्द न जब बोल सके
भोर की आरजू2 उम्मीद में बदलती है
चिन्गारियां राख में दबी सिमट गयीं
आंसू बिन आंख रो-रो क्या कहती है
उजाले न मिलने की कोई आस नहीं
ना उम्मीदी ऐसी हवा भेज देती है
उन राहों को सदा मिल न सका कुछ
दर्द की आग तमन्ना3 में जो जलती है
मेरी बच्ची संग सवर्णों ने रेप किया
वो हर याद मेरी आखें फोड़ देती है
किसी रेप की आवाज भले होती नहीं
हर मजलूम को जो, ‘बाग़ी’ बना देती है