भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
दुर्दिन के बादर घिरलई / जयराम दरवेशपुरी
Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:23, 12 जून 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=जयराम दरवेशपुरी |अनुवादक= |संग्र...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
सून सेजरिया नागिन जइसन
रातो भर फुफकारऽ हे
दउड़ऽ हे काटइ ले हमरा
टेढ़की नजर निहारऽ हे
सोंच किकिर के महा समुंदर
में हिलकोरा उठऽ हे
रात-रात भर हम जागऽ ही
सउँये दुनिया सुत्तऽ हे
घुप्प अन्हरिया हमर हिया में
रह-रह मलका मारऽ हे
कत्ते दशहरा देखते रहलूं
कत्ते फागुन बीत गेलइ
ई दुर्दिन के बादर घिरलइ
मन हम्मर भयभीत भेलऽ
नेह प्रेम के नसल दीया
कजा रोशनी बारऽ हे?
दुन्नूं अँखिया सावन भादो
कत्ते मेघ बरसावऽ हे
छछनल मन में साजन के सुधि
बार-बार तरसावऽ हे
आशा के उमड़ल धारा में
मन जब गोता मारऽ हे।