भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कुछ साँवले कुछ काले आदमी / तिथि दानी ढोबले

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:16, 8 जुलाई 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=तिथि दानी ढोबले |अनुवादक= |संग्रह=...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कुछ साँवले से
कुछ काले आदमी
मैंने देखे बारिश में डूबे
उस खेत में
जहाँ पैदा हो गयीं थी मछलियाँ

कूदने लगे ये आदमी
एक-एक करके
सुरक्षित कर लीं इन्होंने
अपनी-अपनी जगह

एक ख़ास बात और
इनके बारे में
अजीब तरह की मुद्रा में
हवा में गोल-गोल घूमकर
कूदने से पहले
याद दिलाते हैं ये
किसी सर्कस में दिखाए क़रतब की।

फिर बहुत जद्दोजहद के बाद
इनके हाथ आती है
इनकी ज़िंदगी की वजह
जिसे मुट्ठी में
नहीं बाँध सकते ये
क्योंकि बहुत बड़ी हो चुकी है
वह मछली

चिकनी मिट्टी घोले हुए
वह पानी,
निकलने नहीं देता
उस काले आदमी को,
आसानी से।
कुछ विचलित होती है
तैरने वाली उसकी मुद्रा,
और चिकनी मिट्टी
फिसला देती है वह मछली,
उस काले आदमी के हाथ से
बिल्कुल उसी तरह
जैसे तपते रेगिस्तान में
भटके हुए मुसाफ़िर के
मुँह तक आई
पानी की कुछ बूँदें
फिसलकर आ जाती हैं
उसके गाल पर।

बेहद परेशान है
वह काला आदमी
क्योंकि नदी-तालाबों में
बह रहा है
ज़हरीला पानी
और डस रहा है
मछलियों को।

उस काले आदमी को
नहीं मालूम
जीवन जीने की
कोई और विधा

इत्तिफ़ाक से
मैंने क़ैद कर लिया था
ये नज़ारा।
उस काले आदमी के अलावा
थे वहाँ कुछ साँवले आदमी भी
जिनके हाथ से
नहीं फिसली थी
कोई मछली।
लंबे इंतज़ार के बाद आती
सूरज की किरण
पड़ रही थी
उनके चेहरों पर
साफ़ दिख रही थी
उनकी मुस्कुराहट

लेकिन मैं
कुछ और देख रही थी वहाँ
सुन रही थी
रूदन की आवाज़
पलटकर देखा था मैंने
इस उम्मीद में,
कि शायद
यह आवाज़ है
उस काले आदमी की।

पर मैंने देखीं
मछलियों की कई आत्माएँ
समूह में रोती हुई
जिनकी आवाज़
मुझे लगी थी,
उस काले आदमी की आवाज़।