सपनों की परिभाषा को
मुमकिन होते
देखा है कभी आपने,
हो सकता है देखा हो
पर यकीनन वह बदल लेगी अपने मायने,
जब मैं रखूंगी/ अपनी जिंदगी में शामिल
कुछ सजी- संवरी धरोहरों को आपके सामने।
गहरा लगता है/ रौशनी और मनुष्य के जीवन का नाता।
निपट अकेला अंधेरा/ अक्सर/ मीठी नींद लाने के बरक्स
मान लिया जाता है/ उदासी का पर्याय/
इस उदासी के गर्भ में/ रहता है अवसाद/
ज़्यादातर आत्महत्याओं के प्रमाण/ कम उजले दिनों में
या फिर बेमौसम बरसने को लालायित/ बादलों के इर्द
गिर्द मिलते हैं/ यह वृत्तांत बेमतलब का नहीं।
कम उजली रातें भी/ पारलौकिक घटनाओं का
भय पैदा करती हैं।
शायद इसी भय को/ दूर करने ही बदल देते हैं
अपनी स्थिति/ गाहे-बगाहे कुछ नक्षत्र/
कुछ शुक्ल पक्ष कृष्ण में,
कुछ कृष्ण पक्ष शुक्ल में/ बदल जाते हैं।
लगता है/ जैसे इम्तिहान लेते हैं
मनुष्य के साहस और पराक्रम का।/
इन सभी बातों को/ भुलाने के लिए ही
आते हैं उत्सव।
दीवाली पर/ कृत्रिम रौशनियों के भरपूर इंतज़ाम के दरमियां
दिलों की रौशनी ज़्यादा जगमगाती है।
दो दिल,/ एक साइकिल को धक्का देता हुआ/ तीस साल का,
दूसरा /उस पर बैठा/ मात्र तीन साल पुराना।
साइकिल के हेंडल पर चमकती
हरी व गुलाबी रौशनी,
गुलाबी ठंड के एहसास के साथ
जुगलबंदी करती…/
उस तीन साल पुराने की
सपनों की भाषा को/ लिख रही है
ऊबड़-खाबड़, पथरीले रास्तों पर।
बाप-बेटे को/ अब तक के अपने जीवन का
सबसे बड़ा सपना
सभी आतिशबाजियों के बरक्स
अपने साथ चलता/ दिख रहा है।