प्रेम का विस्तार / मुकेश निर्विकार
हे प्रिये!
मैं और तुम,
तुम और मैं,
अब नहीं रहे परिमित
स्वयं दो विग्रहों में,
हमारा प्रेम
सर्वव्यापी बन,
प्रफुल्लित हो चुका है
समूचे भूवन औ’ उपवनों में
अंगीकृत किया है इसे
सभी ऋतूओं ने
दिग्-दिगंत!
वासन्ती बहार में हमीं खिले
जब हम-तुम मिले
ग्रीष्म की तपिस
हमारे ही अंतस् का सैलाब थी
शिशिर का शीत हमारे ही
जज़्बातों का जमाव
घुप्प कोहरा था हमारे ही दिलों का
संशय, जो फैला अनन्त विस्तार तक
आँधियाँ थी हमारे ही दिलों की आतुरताएँ
तूफान हमारा ही तो था आक्रोश
ओले समाज के थपेड़े हम पर गिरते थे
और झुलसाती लू-
समाज की तिक्त हिदायतें हमार लिए आदेश बन जाती थीं
वो मूसलाधार बारिश थी हमारा अविरल अश्रुप्रवाह
हमीं रोते रहे चौमासे भर
पावस ऋतु बनकर
बिछुड़े जब परस्पर
सदा के लिए,
चिर बिछोह का हमारा आंदोलन
आज भी मठ रहा है
अखिल ब्रह्माण्ड को!
हे प्रिये! तुम देखना-
अपवाद नहीं रहेगी यह धरा
नहीं बैठ सकेगी चैन से कभी
रहेगी घूमने को सदा अभिशप्त
संतापों की चुभती कील पर
चिर-बिछोह में भटकती फिर रहीं
हमारी बेचैन आत्माओं की तरह
करती रहेगी यह धरा
निरंतर-शाश्वत-सतत्
परिक्रमण और परिभ्रमण....
परिक्रमण और परिभ्रमण....