बच्चा! अनन्त संभावना / मुकेश निर्विकार
बच्चा
अदना-सा जीव भर नहीं होता
और न ही दो-चार बरस की कोई काल-रेख
माँस-मज्जा और हड्डियों में रमा
श्वास का स्पंदन भी नहीं कोई,
बल्कि अनन्त, संभावना-पुंज होता है बच्चा!
बच्चे की आँखों में तैरते हैं
जिज्ञासाओं के अनसंख्य बादल
उसके अंदर फैला होता है
आशाओं का विशाल अवकाश
हरदम टिमटिमाते हैं जिसमें
हसरतों के रोशन सितारे
व्याप्त होती हैं इसमें
कई-कई आकाश-गंगाएँ
अंतनिर्हित हैं उसके अंदर
समूचा ब्रह्मांड एक!
बच्चे के दिल में बहती है
कल्पनाओं की गहरी नदी
इतनी विशाल की इसमें
डूब जाते हैं समझदार इंसान भी
मगर, बच्चा उस नदी को
पार करता है हर रोज
कई-कई बार, खेल-खेल में।
उसके नन्हें पैर
देते हैं मात हवा को
उसकी साँसों से फूटता है
जोश का ज्वालामुखी
इस घूमती धरा पर
जबकि सब लोग अपना लेते हैं
धरती की गति
अपनी ही गति से डोलता है बच्चा
एकदम मस्त, बिलकुल बेफिक्र!
उसके पैरों के नीचे
सच मानों
लट्टू-सी घूमती है
यह धरा !