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एक प्रार्थना / मुकेश निर्विकार

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‘ओ गनेसजी !ओ सिवजी! ओ लच्छमीजी!
सुनो,किसनजी और रामचंदर जी तुम भी!’

क्यों नहीं करते दूर
गरीबी उनकी
गढ़ते है जो तुम्हें
बैठकर सड़क किनारे
सुंदर-सरल-सलौनी
मनमोहक छवियों में
गढ़ते तुमको स्वयं
चित में हर पल धारे!

वे सब सदा तुम्ही पर रीझे,
छैनी के संग
क्षण-क्षण छीजे
बेढ़व पत्थर छील-छीलकर
गढ़े तुम्हें,
तुम नहीं पसीजे !

तुम सब सदा धनिक को बरसे
सर्जक सदा दया को तरसे
क्यों ऐसा अन्याय, प्रभु कब बतलाओगे?
जड़वत अपनी देह में हरकत कब लाओगे?