“लोहे का खंभा फाड़ के
आ निकले थे/अकस्मात
नरसिम्हा
निर्दोष की रच्छा के लिए
अन्याय रोकने के वास्ते””—
बतलाती थी बूढ़ी दादी माँ!
मगर, अब
न जाने कितने निर्दोष
मारे जाते हैं रोजाना,
वे चीखते-चिल्लाते हैं तुम्हें
अपनी अंतिम सांस तक,
मगर उनकी आर्तनाद सुनकर,
कहीं से आवाज तक नहीं आती है
प्रभों तुम्हारी!
लोग कहते हैं की अब सच्चे दिल से
इस कलियुग में
पुकारता नहीं है कोई तुम्हें।
प्रतिवाद करता हूँ मैं इसका—
“क्या मौत की विभीषिका में घिरे लोग
बेवजह मारे जाते वक्त
विशुद्ध हृदय से
न पुकारते होंगे तुमको, हे प्रभु!
दहेज हत्या की लपटों में घिरी
बेबस वधू/की करूण चीत्कार
क्या पाँच पतियों वाली/ द्रोपदी से भी गयी बीती है?
दम छोड़ती माँ की बगल में बैठा बच्चा
क्या सुदामा से अधिक दयनीय नहीं?...”