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दर्शक एक मौन हूँ! / मुकेश निर्विकार

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मैं?
क्या हूँ मैं?
कौन हूँ मैं?
बहुत कठिन है
खुद को तय कर पाना
मेरे लिए।

हर दिन मैं
बदला करता हूँ
कई बार
दिनचर्या और जरूरतों के अनुरूप
खुद को ।

अनेकों बार
बनता-बिगड़ता हूँ
जुड़ता-घटता हूँ
एक ही दिन में
कई बार मरता हूँ
तो कई बार जी उठता हूँ

लेकिन, कुल मिलाकर
जीवित ही अवशेष हूँ।

हर दिन सुबह
नहाने के बाद
खुद को तरोताजा महसूस करता हूँ
जिंदगी उत्साह से काटने का संकलप लेता हूँ
मगर
दिनभर की चिल्ल-पौं के बाद
शाम तक
मेरे सारे संकल्प-विकल्प और स्वपन टूट चुके होते हैं
नहीं अवशेष रहती हैं
आशा और विश्वास की एक भी कोंपल
रात्रि में भोजन कर नींद से जूझते हुए
हर रोज दफ्तर से लाए बकाया काम को
पूरा करने का दायितत्वबोध
अनुभव करता हूँ
दिन में कभी सम्मान तो कभी अपमान
महसूसता हूँ
कभी निराशा तो कभी आशा,
कभी ख्वाब तो कभी हकीकत
और कभी-कभी तो कुछ भी नहीं!

इन सबके बीच आखर मैं कौन हूँ?

नियति-नटी के तांडव में, शायद,
दर्शक एक मौन हूँ।