आँखों का रंग / नवीन रांगियाल
वहाँ से दूर
बहुत दूर
यहाँ इस तरफ़
तुम क्या जानो, याद क्या होती है
आँख का रंग कैसे याद करना पड़ता है
कितना खपना पड़ता है
काले और कत्थई के बीच
कितनी कोशिशों के बाद
मुझे अब भी तुम्हारी आँखों का रंग याद नहीं
आँखों की स्मृति में एक उम्र बीत सकती है
और वो वादा
जो आँखों में किया था
कि हम कभी भी
कॉफ़ी नहीं पिएंगे अकेले- अकेले
और कोई सपना भी नहीं देखेंगे
ये फासलें न हो तो
आँखों के रंग पर दीवान लिखे जा सकते हैं
तेज़ हवा में गालों से रिसता हुआ तुम्हारा आई लाईनर
यहाँ एक मुद्दत की तरह है मेरे पास
एक गहरी बहती हुई लकीर
जो हर सुबह तुम अपनी आँखों के पास खिंचती हो
शाम तक ख़ुद ब ख़ुद अपने ही पानी में डूब जाती है।
मुझे याद है
तुम्हारे कमरे के रोशनदान के पास
कैसे इकट्ठा हो जाते हैं कबूतर
और हर सुबह तुम्हें जगा देते हैं
तुम रोज कबूतरों के ख़िलाफ़ शिकायतें करती थी
मैं तुम्हारी वो सारी शिकायतें सुनता रहा हूँ
बावजूद इसके
कि ज़्यादातर धूसर भूरे कबूतर मेरी कविताओं का बिंब हैं।
याद है तुम्हें
एक बार तुम्हारी कमर के ताबीज़ के धागे को बांधने में उंगलियां कितनी उलझ गईं थी मेरी