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प्रबुद्ध युवा, मैं / हरीश प्रधान

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साँप निकल जाने पर
लकीर पीटने
और निर्णय लेने में
विलम्‍ब करने का
अभ्‍यस्त मैं
क्रांति कीआँच को
जब-जब अपने निकट पाता हूँ
उसके सहगामी होने की बाँग
रूक-रूक कर
आराम से लगाता हूँ
एक निहायत अभावग्रस्त बना
अपनी कुंठाओं में संत्रस्त
महात्वाकांक्षाग्रस्त
थोथे वक्तव्यों की बैसाखी पर टिका
एक प्रबुद्ध वर्गीय
कथित युवा

अपने आक्रोश को सुरक्षित रखता हूँ
क्रांति कीआग में
स्वयं को होम देना
मैं...
सीख नहीं पाया हूँ
पड़ोस की क्रांति का धुआँ
जब-जब मेरी आँखों में भरता है
तिलमिला कर
अपनी सक्रिय भागीदारी का दावा
वक्तव्यों में प्रकट करता हूँ
न्यायोचित अधिकारों के लिये
मरते हुए अपने किसी साथी को
आगे बढ़ कर
साथ देने का, घोर संकोची
मैं ...
सिर्फ पलायित भीड़
और अराजक तोडफ़ोड़ की
भर्त्‍सना कर
आत्मतुष्टि की उच्चसीमा पर
स्वयं सुरक्षित कर लेना
अब, मेरी प्रवृत्ति‍हो गई है।