भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दर्पण / हरीश प्रधान

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:21, 11 सितम्बर 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हरीश प्रधान |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCat...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सब कहते हैं
तुम सही, बिल्‍कुल सही प्रतिबिम्‍ब दिखाते हो
साफ-साफ बताते हो
लगता यों नहीं
जब-जब कोण बदलता हूँ
एक नया प्रतिबिम्‍ब बनता है
आज फिर तुममें झांका
लगा कोई बूढ़ा झांक रहा है
निसंदेह यह मैं तो नहीं
कहाँ गया वह निश्छल चेहरा
सब कुछ खिंचा-खिंचा सा
समय की धूप में
तपा-तपाया सा
या यही वह रूप है
एक प्रश्न चिह्न बनकर तुम टगें हो
शयनागार से मंदिर तक
मन नहीं मानता
न माने
तुम अपना धर्म निभाते हो
दर्पण हो
हर कोण पर
नया रूप दर्शाते हो
कितने रूप बदलते हो
सच, तुम शाश्वत हो
इसी से
अनचाहे सब को हर्षाते हो।