भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अपरा / कुबेरनाथ राय
Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:09, 18 सितम्बर 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कुबेरनाथ राय |अनुवादक= |संग्रह=कं...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
तुम्हारी अपरा छबि का ध्यान
तब मन में आता था बार-बार
ये बाग बगीचे पेड़ तुम्हारे, पीले सरसों के खेत
यह चुनरी तुम्हारी सबुज-पीत धरती-नभ के आर-पार,
जिसका आँचल मन में फहराया बार-बार।
अमराई के बांसों से हर-हर खड़-खड़ स्वर समवेत
ऊपर उठी तुम्हारे नभ में स्वर की एक बलाका।
पाँत-पाँत में उठते जाते श्वेत बगूलों के दल
दिशा-दिशा को मथता फिरता व्याकुल
कोकिल का पंचम; जब नभ में हँसती राका।
उन सबके भीतर पाया मैंने
तुमको ही बार-बार।
तुम्हारी अपरा छबि का ध्यान
किया है मैंने बार-बार।
[1962 ]