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आईना हूँ / अनिल कुमार मिश्र

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जो भी मेरे पास आता
मैं नहीं कुछ बोलता पर
उसकी आँखों से ही उसको
चेहरा उसका दिखाता |

जानता हूँ
मैं हक़ीक़त हर किसी की |

कौन असली, कौन नक़ली
कौन अपने चेहरे पर
किस तरह से और कितना
रंग दूजा है लगाए ?
कौन अपनी कालिमा को
किस तरह से और कब से
है मुखौटों में छिपाए ?

पर नहीं मैं बोल सकता
राज़ उनके खोल सकता
बेजुबां हूँ |

जानते हैं वे भी
वाणीहीन हूँ मैं, दीन हूँ मैं |

इसलिए ही
रोज मेरे पास आते
गुनगुनाते
बेहयाई से
वे मेरी आँख से आँखें मिलाते,
मुस्कुराते |

और मैं लाचार
रोके आँसुओं की धार
उनको देखता
चेहरे बदलते खेलते |

उस तरह से
जिस तरह से देखती है
शील खंडित एक क्वाँरी
बरी होता बलात्कारी |

न्याय के आँगन खड़ी हो
छटपटाती है वह उतनी
छटपटाई थी न जितनी
यह व्यवस्था है हमारी |

न्याय की देवी करे क्या ?
आँख पर पट्टी चढ़ाए
स्वयं की जंज़ीर से
जकड़ी हुई बेबस बेचारी
बन चुकी है गांधारी |

और वाणी पास जिसके
दृष्टि उसको दी नहीं
लगता विधाता
क्योंकि वह धृतराष्ट्र जैसा
कुछ नहीं है देख पाता |
कुछ नहीं है देख पाता ||