भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बचाव / वेणु गोपाल
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:42, 5 सितम्बर 2008 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=वेणु गोपाल |संग्रह=चट्टानों का जलगीत / वेणु गोपाल }} रुक...)
रुको--
कि कैसे चूम पाएंगे हम
हमारे होंठ कट चुके हैं।
चाकू
उसी के हाथ में है
जिसके मुँह ख़ून लगा है।
झुको--
ज़रूरी है कि हम अपनी
परछाइयों के साथ गड्ड-मड्ड हो जाएँ
अगला वार
पता नहीं कब
और पता नहीं कहाँ होगा?
(रचनाकाल : 4.12.1975)