कहाँ खो गई
उम्र की वो नदी
जो खुली धूप में
कुलाचें भरती उछलती दौड़ती थी
तो समय
ठिठक जाता था
रोमांचित राहें, पड़ाव
हरे-भरे कछार
मीठे आवेग से भर
छूने को ललकते थे गाल
और वह निधड़क
पेड़ों से झुक-झुक कर बातें करती
फूलों के संग संग हँसती
अचानक खिलखिला कर
खुली रेत पर बिछ जाती थी
उमंगों भरा सीना
उमग कर
आकाश हो जाता था
गुनगुनी बाँहों में
कचनार कलियों का परस,
साँसों में
चटखते गुलाबों की ख़ुशबू
तिर आती थी...
पास
सिर्फ पास रहने की
अतर्कित प्यास लिए
पंख तोलता था मन,
दूर, जादुई उजालों की दिशा में
उजले हंसों की तरह
अब नहीं हैं वे मुक्त हवाएँ
वे ज़िद्दी उफान,
मगर
अब भी, कभी-कभी
पारे की तरह थरथराता एकान्त
अधीर हो
पूछता है सवाल
कि कहाँ खो गई
उम्र की वो नदी
जो कुलांचे भरती दौड़ती थी
और समय उसकी गुल्लक में
क़ैद हो जाता था!