इतिहास के पन्ने पुनः पलटते हुए / कुमार विक्रम
मैं धम्म से कुर्सी से गिर पड़ा
ज़मीन पर लेटे-लेटे
लगा सोचने
कि यह व्यक्ति जो मेरे सामने है खड़ा
जिसे मैं जानता हूँ सदियों से
एक पल को क्यों लगा
कि यह खून में सराबोर है?
हालाँकि, घंटों से हम दोनों थे बैठे साथ
चाय पी, गप्पें हाँकी
इधर-उधर की कही, सुनाई
हँसे भी साथ-साथ
बालकनी पर की चहलक़दमियाँ
लेकिन फिर जैसे ही वह लाने को पानी बढ़ा
मुझे लगा जैसे खून से हो वह सना
और मैं गिर गया धम्म से
आश्चर्य है जब इसकी बनाई चाय
पी थी मैंने, मुझे कुछ अजीब-सी
बदबू आयी थी ज़रूर और जिस कुर्सी पर
वह बैठा था उसका रंग था लाल-गुलाबी-सा
लेकिन जान-पहचान के संग
अनजानी बातें कोई कब सोचता है
नहीं दिखता कोई बदरंग
मैंने हमेशा माना था उसे बड़ा भाई
(वह खुद भी यही जानता था)
मुझे नहीं मालूम
उसकी मुस्कान खून से नहाई होती थी
उसकी जीन्स के पॉकेट में
सोचा था मैंने है कोई बेशकीमती मोबाइल
कहाँ था मालूम मुझे
उसमें तो छिपा रखा था उसने
स्वर्ण-जड़ित रक्त-रंजित तलवार
और उसकी टी-शर्ट पर की पेंटिंग
नज़दीक से जा देखने पर
दरअसल थी एक नक़्क़ाशी
खून के छींटों से बनी
मुझे नहीं था मालूम
अपनी सोच की नग्नता
उसने ढक रखी थी खूनी किस्सों से
जिसके पात्र होते थे मैं और मेरे पूर्वज ही
और मैं धम्म से कुर्सी से गिर पड़ा
'साक्षी भारत', २००६