भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बीत गए जो मास मधु के / रामगोपाल 'रुद्र'
Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:35, 5 नवम्बर 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रामगोपाल 'रुद्र' |अनुवादक= |संग्रह=...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
बीत गए जो मास मधु के, सब प्रत्यक्ष समान, मेरे
ओ प्राणों के प्राण!
जीवन का जब भोर ही था, मानस हास-विभोर,
तुम चुपके-चुपके गगन में उग आए चितचोर;
और, चुराकर नींद मेरी, गूँजे बनकर गान मेरे
ओ प्राणों के प्राण!
नेह-भरा तो था दिया, पर आग बिना अँधियार;
सो तुमने क्या लौ जगाई, गेह हुआ उजियार;
लौ न बुझे, लौ की चिता पर फूल बने अरमान मेरे
ओ प्राणों के प्राण!
प्रेम कठिन सौदा यहाँ, बस, घाटे का व्यापार;
खोए लाखों-लाख मोती, मिला न मन का प्यार;
सच न हुए लो, स्वप्न ही तो जीने के सामान मेरे
ओ प्राणों के प्राण!
आए हो तुम इस घड़ी, जब घिर आई है रात;
खाली हाथों जा रही मैं, लेकर खाली मात;
क्या दूँ तुमको भेंट? ले लो, थाती हैं जो प्राण मेरे
ओ प्राणों के प्राण?