भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

एक क्षण भी तुम / रामगोपाल 'रुद्र'

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:42, 5 नवम्बर 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रामगोपाल 'रुद्र' |अनुवादक= |संग्रह=...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

एक क्षण भी तुम हिमाचल-शीश पर चढ़ाकर अगर गिर ही पड़े तो क्या?

रश्मि से छूकर तुम्हारे स्वप्न ने जग को जगाया जाग मेरे होश!
भोर का सपना तुम्हारे सामने कुम्हला रहा था जग रहा बेहोश!
और, जब उस दिन बिहँस रस का हलाहल पी गए थे, कम न था संतोष!
आज तब क्या है कि सूने में गड़ाए आँख तुम हो एकदम ख़ामोश?
क्या नई-सी बात। 'पी' की टेर पर घन से अगर शोले झड़े तो क्या?

दाह-घर से आह उठती घटाओं ने पुकारा ओ अमर आलोक!
तुम रहे बुनते सुनहले स्वप्न शोभा के जहाँ पर, वह नहीं यह लोक!
इस चमन में तो पनपते ही सुमन-दल को सुखा देता गगन का शोक!
और, प्रतिभा का अरुणपथ भी अँधेरा है, कलपते हैं कला के कोक!
पर, किरणमाली! चले जब फूल ही चुनने, कहीं काँटे गड़े तो क्या?