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बरसे हैं मेह कहीं न कहीं / रामगोपाल 'रुद्र'

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बरसे हैं मेह, कहीं न कहीं!

ईर्ष्यातप के हुत श्वास पवन,
दहते चलते थे जो बन-बन,
लगते हैं अब तन में चन्‍दन;
लगता है, आज पुकारो ने परसे हैं मेह, कहीं न कहीं!

बिजली तो है, पर मेह नहीं;
जलती है लौ, पर नेह नहीं;
हैं प्राण कहीं, औ' देह कहीं;
फिर आज, पपीहे के स्वर को तरसे हैं मेह, कहीं न कहीं!

मेरे दृग में जो भर आया,
बनकर मरु-जीवन लहराया,
सचमुच, वह है! या, मृग-माया?
फिर आज, सफल छल पर अपने, हरसे हैं मेह, कहीं न कहीं!