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तुम्हीं मुँह मोड़ रहे / रामगोपाल 'रुद्र'

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तुम्हीं मुँह मोड़ रहे, सजाकर लोचन-दर्पण-द्वार!

प्रलय में पोत किधर, कहाँ आया, मैं क्या जानूँ!
भँवर में था लंगर, हुआ फिर क्या, मैं क्या जानूँ!
पुकारा था शायद, तुम्हीं को तब रोकर मैंने!
तुम्हारा क्या होकर तुम्हें पाया, मैं क्या जानूँ!
तुम्हीं अब छोड़ रहे, किनारा ही करके मँझधार!

हरे अरमानों से, जिसे तुमने हँसकर हेरा;
सुरीली तानों से, जिसे तुमने डँसकर टेरा;
लता वह लाजवन्‍ती, बनी तुमसे जो रसवन्‍ती
गुणी संधानों से, जिसे तुमने कसकर घेरा;
तुम्हीं अब तोड़ रहे, उसे असमय देकर पतझार!

मिला जो नेह-सलिल, खिला जड़ता में भी जीवन
कि जैसे शापित सिल हुई थी पद परसे श्री-तन;
तुम्हारी चितवन ने बना डाला तम को चन्‍दा
कलूटे काँच-कुटिल, बने कांचन-दीपक-दरपन!
मुकुर वह फोड़ रहे, तुम्हीं अब छल के छींटे मार!