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कहाँ बरसाऊँ व्याकुल प्यार / रामगोपाल 'रुद्र'

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कौन जग में अपना आधार?

पतझर में मधुकर के मन-सा,
सूनेपन में सावन-घन-सा
डोल रहा, बाँधे प्राणों में
रस के ज्वर का ज्वार

अपने ही मद से विह्वल-सा,
मृग-सा, पाटल के परिमल-सा,
ढूँढ़ रहा मैं निष्फल, बन-बन,
सौरभ का संसार!

किस-किसकी मैं प्यास बुझाऊँ?
कहाँ बिखर जाऊँ, लुट जाऊँ?
कौन सँभाल सकेगा, मेरी
गंगा का अवतार!