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एक आकुल आस / रामगोपाल 'रुद्र'

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प्राणों से लगी, न निकल रही,
गतस्नेह भी नित जल रही,
बनकर विश्वास
लौ-सी एक आकुल आस!

याद बनकर साँस

मर-मर के भला क्यों जी रही?
क्यों घाव दिल के-सी रही?
अब क्या धरा है पास?
कोई याद बनकर साँस!