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आज भी मोह लगता है / रामगोपाल 'रुद्र'
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कितना आज मोह लगता है!
आज न जाने कैसा तो यह
कसक रहा मन में कुछ रह-रह;
अँगड़ाई लेता ज्यों सोया
ज्वालामुख जगता है!
इधर एक आग्रह रुकने का,
और, उधर न तनिक झुकने का;
आवाहन करता दूरी पर
वह शतघ्न दगता है!
किसकी मानूँ? किसकी टालूँ?
क्या ठुकरा दूँ? क्या अपना लूँ?
प्रेम और कर्तव्य बीच यह
कौन मुझे ठगता है?