भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कभी—कभी हमें ऐसे भी स्वप्न आते हैं/ जहीर कुरैशी

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:09, 21 अप्रैल 2021 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कभी—कभी हमें ऐसे भी स्वप्न आते हैं
जो जागते ही हमें देर तक लजाते हैं

हजार रास्ता रोकें पहाड़ दुनिया के
जो लोग झरने हैं, खुद रास्ता बनाते हैं

हम अपने घर से निकल कर कहीं गये तो नहीं
हमारे द्वन्द्व भी हमको बहुत थकाते हैं !

वे मन के रोगी हैं, उनका इलाज करवाओ
जो सामने पड़े उसका ही दिल दुखाते हैं

हमारे क्रोध का ‘धृतराष्ट्र’ देख पाया कब—
जो फूल हैं ,वो हमेशा ही मुस्कुराते हैं

सुहानुभूति उसी के लिए उपजती है
हम अपनी पीर को जिसके करीब पाते हैं

पड़ा है सोया हुआ वृक्ष बीज के अंदर
समान ‘धूप, हवा,जल’ उसे जगाते हैं