भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

...के नाम / अलेक्सान्दर पूश्किन

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:12, 20 फ़रवरी 2022 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मुखपृष्ठ  » रचनाकारों की सूची  » रचनाकार: अलेक्सान्दर पूश्किन  » संग्रह: धीरे-धीरे लुप्त हो गया दिवस-उजाला
»  ...के नाम

मुझे याद है वह अद्भुत्त क्षण
जब तुम मेरे सम्मुख आईं,
निर्मल, निश्छल रूप छटा-सी
जैसे उड़ती-सी परछाईं।

घोर उदासी, गहन निराशा
जब जीवन में कुहरा छाया,
मन्द, मृदुल तेरा स्वर गूँजा
मधुर रूप सपनों में आया।

बीते वर्ष, बवण्डर आए
हुए तिरोहित स्वप्न सुहाने,
किसी परी-सा रूप तुम्हारा
भूला वाणी, स्वर पहचाने।

सूनेपन, एकान्त-तिमिर में
बीते, बोझिल, दिन निस्सार
बिना आस्था, बिना प्रेरणा
रहे न आँसू, जीवन, प्यार।

पलक आत्मा ने फिर खोली
फिर तुम मेरे सम्मुख आईं,
निर्मल, निश्छल रूप छटा-सी
मानो उड़ती-सी परछाईं।

हृदय हर्ष से फिर स्पन्दित है
फिर से झंकृत अन्तर-तार,
उसे आस्था, मिली प्रेरणा
फिर से आँसू, जीवन, प्यार।


रचनाकाल : 1825