एक रात की कथा / दिनेश कुमार शुक्ल
देर से बैठे हुए थे
रामकोविद
शुरू करनी थी कथा
रात गहराने लगी थी
मंच पर कसता कोई ढोलक
किसी ने पाँव में घुँघरू कसे
करताल साधी हाथ में
सनसनाता गैस का हण्डा
निगलता था पतिंगों को
और नीचे टाट पर
श्रोता जम्हाई ले रहे थे
चूँकि मुखिया का संदेसा
अभी तक पहुँचा न था
रामकोविद की न थी हिम्मत
शुरू करते कथा
इधर लड़के हँस रहे थे
चल रही थी चुहलबाजी
लड़कियाँ शरमा रही थीं
रामसूरत सिपाही ने
बेंत अपना फटफटाया-
नाच लउँडे का नहीं
खीसें निपोरो मत
जरा गंभीर बइठो-
मूरतें जो सजी बैठीं मंच पर
सूरतें जिनकी पसीने में नहाई
मुस्कुराईं,
मूरतों को देखकर मोहित
वहीं सुखविन्द जी ने आँख मारी
और धीरे से तुरत
खइनी पुचक दी
इस तरह से
चल रही थी प्रतीक्षा
जीवन जथा,
रामकोविद की न थी हिम्मत
शुरू करते कथा
उधर राधा बुआ
रह-रह मूरतों के जोड़ती थीं हाथ
फिर-फिर नवाती थीं माथ
फौज में उनका अकेला पूत
उसकी छुट्टियों के दिन
हुए पल-छिन
और अब तो उसे जाना था
सियाचिन
तलब से बेचैन बैठे
तबलची इमरान
जेब में कौड़ी न थी
आता कहाँ से पान
वह समय बीता
जब बना करते वही सीता
ऊब कर फिर कसा तबला
ताक-धिन-धिन
रहे लीलाधारियों के साथ
इतने दिन
रम गये थे अब उन्हीं के पास
भूल कर घर का पता
रामकोविद की न थी हिम्मत
शुरू करते कथा
पान की गुमटी डरी सिमटी
सड़क पर टिमटिमाती थी
उसी की ओट में
इक्का रुका उससे कोई उतरा
उतारा गया कोई
दर्द से घुटती हुई आवाज-
गया था देने गवाही
मुकदमें में भूमिहीनों की तरफ से
न्याय की कहने
मगर वह लौटा बँधाये हुए पट्टी
घिसटता-सा जा रहा था
थी किसी में दम
सुनाता वो जिसे अपनी बिथा?
रामकोविद की न थी हिम्मत
शुरू करते कथा
रात गहरी हो चली थी
गैस की लाल्टेन
एकदम भकभकाई
दखित टोले से उठी एक चीख
पूरे गाँव पर छाई
लपलपाती एक सिहरन उठी
जैसे छुरी
सबकी पसलियों को चीरती उतरी
गाँव का हर शख़्स
था लेकिन सयाना
फटाफट बन्द दरवाजे
किसी ने कुछ नहीं देखा-सुना-जाना
कान पर मोटा जनेऊ चढ़ाता
भागा सिपाही रामसूरत
तेज थी हाजत,
मूरतें जो सजी बैठी थीं
दहल कर हो गईं मूरत
मुस्कुराते हुए
मुखिया आ रहे थे
बँधी थी घिग्घी, हलक सूखी
मगर हरमोनियम पर
रामकोविद गा रहे थे
सिवा मुखिया के वहाँ अब
दूसरा श्रोता न था
किन्तु फिर भी चाव से
शंबूक वध की
रामकोविद ने कही पूरी कथा