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रात का एकांकी / दिनेश कुमार शुक्ल

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हजारों कोस चल कर फिर
समन्दर आयेगा
और शंख में सो जायेगा
जिसको बजाते थे कभी पुरखे
इस तरह से
रात की पहली लहर
इस गाँव से टकरायेगी

बचाकर आँख सबकी
बुझे चूल्हे में
दहकती-सी किसी की आँख जागेगी
रात के सीमान्त पर
उठायेगा बोल कोई गीत के
और फिर
बीच में ही
छोड़ देगा उन्हें तारों के लिए

दूर टोले से अचानक
गमकती ढोलक उठेगी
खमीरे की महक आयेगी
हवा-बइहर की घड़ी
निकलेगा कोई खण्डहर से
पहन कर बुर्राक कपड़े चाँदनी के
माँगता घूमेगा सुर्ती

और शीशे की तरह
नींद टूटेगी पपीहे की
हवा की चट्टान के भीतर से
कोई बाज झपटेगा
आकाश में उड़ती हुई
एक मूठ निकलेगी
पीपल के नीचे साध कर उसको
कोई गुनिया उतरेगा
उसे ठंडा करेगा
काट कर अपना अँगूठा

सुबह का अन्देशा जब पूरब में झलकेगा
तो सपनों में घुसा स्कूल
बच्चों को डरायेगा
नींद की छोटी-सी चादर ओढ़कर
क्या पाँव फैलायेगा कोई इन दिनों

कान में घुसने के चक्कर में उधर
गोजर पलंग पर चढ़ रहा होगा
धौंकनी-सी उठेगी खाँसी बुढ़ापे की
कोई औरत हड़बड़ी में उठेगी
भाग कर
बच्चों की खटिया में सिमटकर लेट जायेगी
और थोड़ी देर में
चकिया पकड़ लेगी

मुँह-अँधेरे फिर समुन्दर उठेगा चकरोड पकड़ेगा
कुएँ में कूद कर छिप जायेगा पाताल में,
हड़बड़ी में रात बिस्तर गोल करती हुई
कोहबर की कोठरिया में घुसेगी
डूब जायेगी

कब्जियत की वजह से फिर बड़े बाबू
आज दिन भर
हर किसी पर चिड़चिड़ायेंगे

कोलाहल
कभी सरकता नेकर साधे
कभी खिसकता बस्ता
छूटा है स्कूल उमड़ता कोलाहल आता है
एक-एक कोशिका देह की
जुगुनू बन कर दमर रही है
देह और मन की सीमाओं से हो कर स्वायत्त

इस कोलाहल की रिमझिम में
एक चबूतर सीझ रहा है
स्मृतियों के कंगूरे पर बैठा बैठा
पीली पीली धूल छा रही
और गुदुरगूँ समा रही है आसमान में
कटी पतंगों की आँधी में
तैर-तैर कर कोलाहल नीचे उतरेगा
शाम नवम्बर की खिड़की पर
नर्म रुई के गोले जैसा
सूरज धर कर चली गई है

चालिस बरसों की दूरी पर
वैसा ही बेलौस खड़ा है नीम
कुआँ अब सूख चुका है
मुझे अजनबी मान रहे हैं
संध्या-भाषा में बतियाते चिड़िया-चुंगन
उठा लिया है मैंने टूटा मोर पंख
जो वहीं धूल में अटा पड़ा था

कोलाहल में डूब रहा है सूर्य
उसी की किरणें हैं इस मोर पंख में
आज रात सारी धरती पर
आँखों के सूरज चमकेंगे