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धरती के छोर पर / दिनेश कुमार शुक्ल

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खतरनाक थी जगह शाम भी खतरनाक थी
धरती के आखिरी छोर पर आ पहुँचे थे
दिन भर की धक्का-मुक्की से पस्त
श्यामसुन्दर यूपी के

इतने जानकार लोगों से भरे नगर में
कुछ भी पूछो वही ढाक के तीन पात सबका जवाब था,
ठस जमीन पर चलते-चलते
खुद गच्चा खा जाने पर ही
गूढ़ अर्थ की एक झलक भर मिल पाती थी

वह उमस पसीना वह चीकट
वह सात-सात परकोटे वाला बन्दीगृह
वे सजा काटते अर्थहीन प्रत्यय अनेक
आशा, स्मृतियाँ, दृष्टि, स्वप्न
पाँवों में जड़े हुए पहिये
हाथों में लगे हुए थे स्विच
दिन भर खिचखिच करती चलती रहती थी आभासी-मशीन

पिघल चला था दिन
कोलाहल उमड़ रहा था
भवसागर-सा गरज रहा था नगर
नगर के सब घण्टाघर
नये समय के बोझ तले धँसते जाते थे,
बैनामे पर सत्य कर चुका था हस्ताक्षर,
धुँधले बादल-से विचार थे
बादल के ही झूठ-मूठ आकार बनाता
टाइम-पास कर रहा जीवन-
कभी बनाता हिरन,
हिरन से बाघ, बाघ से वीरप्पन की मूँछ,
साँप की पूँछ, चोट करती ललमुनियाँ!

चकित नहीं थे आज श्यामसुन्दर उदास थे
भय की-सी व्यग्रता, उदासी, गहरी विस्मृति,
निष्क्रिय देह, जागती आँखें
आत्मा के टूटे दर्पण में अष्टावक्र विम्ब जगते थे
मर्माहत, असहाय, पराजित
लेकिन फिर भी!

था निषिद्ध वह क्षेत्र, साँस लेना गुनाह था,
एक-एक कोशिका रक्त की हार चुकी थी अपना लोहा,
पिघले सोने में सुन्दरता नहा रही थी,
मद्धम-मद्धम एक दिवंगत स्वर गाता था
लगता था आत्मीय कभी तो कभी अजनबी,
गाँठों वाला टेढ़ा-मेढ़ा बाँस हाथ में लेकर कब से
जोह रही थी बाट घाट पर बैठी छाया,
उल्टी बहती नदी कमा कर जाने क्या-क्या
अपने घर पहाड़ को वापस लौट रही थी

उजड़े हुए नगर के सूने चौराहों पर
सौ करोड़ मानव भ्रूणों की दीप्ति रास्ता खोज रही थी-
उन भ्रूणों की आँखों में इक नई आग थी
जिसे भेड़िये देख रहे थे
और आग से जान बचा कर भाग रहे थे
ताबड़तोड़ नयी कारों पर!

जमुहाई भरती उपेक्षा
अभी खड़ी थी बीच सड़क में डिवाइडर पर
अब उसको भी कुछ करना था,
आग लगी थी उसकी अपनी गर्भ गफा में
जल्दी-जल्दी वह वापस घर लौट रही थी
दूध डबलरोटी खरीदती नुक्कड़ वाले की दुकान से,
कहीं नहीं थी दया, नहीं थी क्षमा
सिर्फ थे वज्रशिला पर लिखे गणित के नियम
हम्मुराबी के, मनु के
इन नियमों को कभी सरल करने की वह सोचा करती थी
जब वह बी. ए. में पढ़ती थी ढाई आखर

उधर अधर पर बैठे हुए श्यामसुन्दर भी
खूब डूब कर देख रहे थे सारी लीला
सात हाथ गहरे खुद पूरा डूब चुके थे-
पहने लोहे का कवच चल रही थीं बातें
वे चतुर चुटीली बातें जब चलती तो करतीं कदमताल
उड़ रही धूल, दम घुटता था,
खुसफुस बातों में सन्नाटा, था सन्नाटे में शोर
श्यामसुन्दर अवाक् थे-
उनके सिर की जगह उठा कर अस्ताचल से
लगा गया था कोई ठण्डा-ठण्डा सूरज

मुड़ते मुड़ते उस जगह सड़क
फिर खुद में घुसती जाती थी
धरती भी बदल रही केंचुल, भाषा की गति भी मन्द,
बन्द थे सभी रन्ध्र, निस्पन्द श्यामसुन्दर बैठे थे,
था छिपा किन्तु प्रतिरोध उसी जड़ता की जड़ में
जैसे चट्टानों के भीतर अक्सर छुप जाता है पानी-
घनी रात के वज्रद्वार को तोड़ रही थी सिर टकराकर
संशय जैसी दिखती कोई अभिनव आस्था
धरती के आखिरी छोर पर!