Last modified on 18 जून 2022, at 11:24

बर्लिन की दीवार / 12 / हरबिन्दर सिंह गिल

Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:24, 18 जून 2022 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हरबिन्दर सिंह गिल |अनुवादक= |संग्...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

पत्थर निर्जीव नहीं हैं
ये सोच भी सकते हैं।

यदि ऐसा न होता
जीवन के उतार-चढ़ाव के लिये
ये पत्थर सीढ़ियों की
उत्पत्ति ही न करते
और मानव रह जाता
थक्कर जीवन यात्रा में।

और थका हारा मानव
क्या इतना विकासशील बन जाता
अगर वह सीढ़ी दर सीढ़ी
आदिकाल से लेकर
आधुनिक युग तक
संभल-संभल कर
अपनी मंजिल तक न पहुंचता
इन्हीं सीढ़ियों के सहारे।

तभी तो बर्लिन दीवार के
इन ढ़हते टुकड़ों ने
बना दी है राह
मानवता के भविष्य के लिये
कि वह भी बनाए सीढ़ियाँ
इन दीवार के पत्थरों से
और मानक्ता जो थक गई है
उबड़-खाबड़ राह पर चलते-चलते
पहुंच सके अपने गाँव
गाँव सभ्यता और भाईचारे का।