भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बर्लिन की दीवार / 18 / हरबिन्दर सिंह गिल

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:32, 18 जून 2022 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हरबिन्दर सिंह गिल |अनुवादक= |संग्...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पत्थर निर्जीव नहीं हैं।
ये पहेली भी हैं।

यदि ऐसा न होता
सड़कों पर लगे
ये मील पत्थर
मानव की जीवन-यात्रा के
अभिन्न अंग बनकर
न रह जाते।

शायद हल
मील पत्थरों के अभाव में
यह कोई तय न कर पाता
उसे जीवन की राह पर
कितनी रफ्तार
से चलना है,
क्योंकि
समय और रफ्तार ही
ऐसे दो पहिये हैं
जो यात्रा सपन करते हैं।

तभी तो बर्लिन दीवार के
ये ढ़हते टुकड़े पत्थरों के
बनकर रह गये हैं पहेली,
कूटनितिज्ञों के लिये,
कि क्या फूट डाल कर
शासन करने की राजनीति
सभ्य मानव की पहचान है।