Last modified on 18 जून 2022, at 12:15

बर्लिन की दीवार / 26 / हरबिन्दर सिंह गिल

Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:15, 18 जून 2022 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हरबिन्दर सिंह गिल |अनुवादक= |संग्...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

पत्थर निर्जीव नहीं हैं
वे अपने आप में संगीत भी हैं।

यदि ऐसा न होता
प्रकृति अपने आप में
बोरान होकर रह जाती।

पाटियों की खामोशी में
बहती नदियों का पानी
और बलखाता गिरता झरना
इन पत्थरों से ही टकराकर
पैदा करता है संगीत।

जिसमें अपना ही
एक गीत होता है
और प्रकृति के सच्चाई की
निकलती है एक वो धुन
जो बनकर रह जाती है, धड़कन।

और इन्हीं धड़कनों में जाकर
थका हारा मानव खोजता है अपनापन
जो उसे अपनो से कभी न मिला
न मिला समाज से भी
जिसमें लिये फिरता है
वह अपना नाशवान शरीर।

तभी तो बर्लिन दीवार के
ये ढ़हले टुकड़े पत्थरों के
पैदा कर रहे हैं एक धुन
आपसी समझ और लगाव की
जिसे सुनने के लिये
मानवता सदियों से तरस रही थी
क्योंकि शायद मानव के पास
वह लय नहीं थी
जो इन पत्थरों ने पैदा की है।