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बर्लिन की दीवार / 36 / हरबिन्दर सिंह गिल

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 कितनी विचित्र थी
ये आँधी
जिसमें न था
कोई तूफान
न बह रही थी आंधी
चक्रवात सी।

सिर्फ प्यार की हवाओं
ने ही
रूप दे उन्हें
द्रण निश्य की आंधी का
समय ने भेजा था
भरपाई करने
उस शून्य की
जो जुदाई
के वातावरण में
दशकों से
बढ़ता ही जा रहा था।

और लोहे के परदों
जैसी ठोस
यह बर्लिन दीवार
पूर्व और पश्चिम
के इस
मिल की खुशी में
अपने आप
ऐसे ढ़हती चली गई
जैसे कोई मोमबत्ती
रही हो पिघल।

क्योंकि इस आंधी को
आर्शीवाद था
मानवता की करूणा का
और प्ररेणा
उसके बलिदान की
तभी तो
जब उठा ज्वार-भाटा
सदियों से दबी
मिलन की चाह का,
लगा ऐसे
पूरा का पूरा सागर
कर पार तटों को
उमड़ आया हो
हर गली कूचों में।