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शैलजा / सुशील द्विवेदी

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एक अंतराल के बाद
दुर्ग की प्राचीरों पर खुरच खुरच कर
लिख रहा हूँ तुम्हारा नाम
ताकि जब कभी लौटो
मेहरानगढ़ के बुर्जों, लम्बी ऊँची दीवारों को स्पर्श करते हुए
पढ़ सको अपना नाम ... शैलजा।
यह नाम तुम्हें तुम्हारा पिता नहीं,
तुम्हारा आदिप्रेमी दे रहा है।

(भूत : आह्वान)

आओ, शैलजा!
शैलपृष्ठों पर, लताओं, तरु-पत्रों पर
आओ कि तुम्हारा सारंग
तुम्हें पुकार रहा है-
मंत्रवत्!
आओ
कि हृदय से
बह चलें अंतःसलिलाएं।

आओ, शैलजा !
कि तुम्हारे संग जी लूं
भर भर अंजुरी पी लूं -
तुम्हारा स्नेह, स्मित, मधु यौवन ।

(भूत : सहचर)

जीवन के
इस एकाकीपन में
तुम दीप-चौरा-सी
मेरी सांध्य- भावनाओं में जल उठी हो
फूल बन खिल उठी हो।

(भूत : स्वप्न)

राग यमन गुनगुनाते हुए सो गया हूँ।
स्वप्न में,
तुम्हारा हाथ पकड़कर
मेहरानगढ़ की सीढ़ियों पर चढ़ता चला जा रहा हूँ
एक के बाद एक ।
कहीं कोई गा रहा है गीत,
कहीं फूल बरस रहे हैं, कहीं रंग,
कहीं जल रहे हैं दीप।

अहा ! कितना सुखद है
तुम्हारी भावनाओं में,
दीप बन जलते चले जाना ।