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घड़ियों की सुइयों–सँग / रामकुमार कृषक
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घड़ियों की सुइयों-सँग
घूम रहे हम
कालजयी होने का टूट रहा भ्रम !
अनुबन्धित राहों पर
प्रतिबन्धित चाल
लाएँ तो लाएँ भी कैसे भूचाल
हिल्लोलें भीतर की बाहर बेदम !
आयातित चश्मों को
आँखों पर टाँग
सपनीले भावों के मुद्रण की माँग
बल्बों की गर्दन को घोंट रहा तम !
विस्मृतियाँ जितनी हैं
उतनी ही शोध
प्यालों में डूबा है भावी युग-बोध
संत्रासित यौवन से बूढ़ा संयम !
उठते निर्माणों में
सांसों की आह
धरती की छाती पर रंगीनी, स्याह
पेटों तक सीमायित बाँहों का श्रम !
08 दिसम्बर 1972