भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

भीतरी दुर्गन्ध से / रामकुमार कृषक

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:44, 8 जुलाई 2022 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रामकुमार कृषक |अनुवादक= |संग्रह=स...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

भीतरी दुर्गन्ध से
बाहर भरा
आदमी बाहर नहीं
भीतर मरा !

बहुत अन्धियारी गुफाएँ
खुल गईं
उतरीं कहीं गहरे
जो बचा किसको दिखाएँ
क्या कहें
अन्धे स्वयं बहरे,

हो गया हर कोण से
मन खुरदरा !

छद्म संज्ञाएँ / मुखौटे ओढ़कर
बैठीं / बिठा पहरे
लोट छाती पर उठी
घुस पेट में नागिन
खड़ी लहरे,

जीभ कूदी बाँधकर
खुद उस्तरा !

25 अक्तूबर 1974