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पनीला हास / रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
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एक पनीला हास
ठूँठ-से तन को हिलाकर
अकस्मात् दौड़ पड़ता
भंग हो जाती समूह की सब जड़ता।
कथा- श्रोता-सी अर्थहीन चुप्पियाँ
शब्द की करती तलाश
खीसें निपोरे मुखमुद्राएँ
वोट माँगते नेता-सी
करती जब याचनाएँ
मन-कपाट पर कील-सा
कुछ गड़ता।
ठेके पर बने नदी के पुल जैसा
दिल न जाने क्यों
भर-भराकर ढह जाता
बस बाकी सिर्फ़ पनीला
हास रह जाता।।
(21-6-78)
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