भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पनीला हास / रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

एक पनीला हास
ठूँठ-से तन को हिलाकर
अकस्मात् दौड़ पड़ता
भंग हो जाती समूह की सब जड़ता।

कथा- श्रोता-सी अर्थहीन चुप्पियाँ
शब्द की करती तलाश
खीसें निपोरे मुखमुद्राएँ
वोट माँगते नेता-सी
करती जब याचनाएँ
मन-कपाट पर कील-सा
कुछ गड़ता।

ठेके पर बने नदी के पुल जैसा
दिल न जाने क्यों
भर-भराकर ढह जाता
बस बाकी सिर्फ़ पनीला
हास रह जाता,
अकेला
सिसक पड़ता।

(21-6-78)
-0-