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उठ न जाए लाश / रामकुमार कृषक
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उठ न जाए लाश...
पहरा है
लाश होना ही यहाँ
अपराध गहरा है !
रोज़
रोज़ों में बदलते
मानते रमज़ान
आदमी जीते जिया श्मशान,
मौत का तकिया लगा
अब, आज ठहरा है !
टूटता बेशक रहा
साबुत रखी
मरजाद
कुल-धुल जैसे, रही फ़रियाद,
बाजु़बानो !
ये ज़माना बहुत बहरा है !
27-9-1976