भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

देह धरी हर बार कबीर / विजय वाते

Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:05, 12 नवम्बर 2008 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विजय वाते |संग्रह= दो मिसरे / विजय वाते }} <poem> देह धर...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

देह धरी हर बार कबीर।
चादर रख दी यार कबीर।

कडुआ भी है मीठा भी,
मेरा पानी दार कबीर।

घोर अँधेरा अन्दर तक है,
क्या देखूँ उस पार कबीर।

है वैसा ही, उतना ही,
वो ही झगडा यार कबीर।

राम, रहीम, अल्ला सब,
अपनी अपनी डार कबीर।

ढाई आखर तेरे होंगें,
अपने साढे चार कबीर।

जन्मों-जन्मों आना होगा,
यहीं दबी है नार कबीर।