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देह धरी हर बार कबीर / विजय वाते

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देह धरी हर बार कबीर।
चादर रख दी यार कबीर।

कडुआ भी है मीठा भी,
मेरा पानी दार कबीर।

घोर अँधेरा अन्दर तक है,
क्या देखूँ उस पार कबीर।

है वैसा ही, उतना ही,
वो ही झगडा यार कबीर।

राम, रहीम, अल्ला सब,
अपनी अपनी डार कबीर।

ढाई आखर तेरे होंगें,
अपने साढे चार कबीर।

जन्मों-जन्मों आना होगा,
यहीं दबी है नार कबीर।