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तिल-तिल मौत / मार्ता मेदेइरोस / प्रभाती नौटियाल

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तिल-तिल मरता वो जो न सलाह-मशविरा करे, न बातचीत,
जो ख़ुद के विरोधाभासों से बचता फिरे ।

तिल-तिल मरता वो, जो होता है आदत का ग़ुलाम ।
रोज़ उन्हीं गली-कूचों में घूमता-फिरता है
लेता है सुपरमार्केट से वही सौदा-सुलफ़। ब्राण्ड भी नहीं बदलता,
नया रंग पहनने का ख़तरा नहीं उठाता, न बतियाता अनजानों से ।

तिल-तिल मरता वो, जो टेलीविज़न को गुरु और हमदम बनाए ।
बहुत से नहीं ख़रीद पाते एक किताब या सिनेमा का टिकट,
लेकिन कई ख़रीद सकते हैं, पर पड़े हैं पिटारे के सामने अलग-थलग,
पहुंँचाता है वो उन्हें सूचना और मनोरंजन, पर उन चौदह इंचों को
लेनी नहीं चाहिए एक ज़िन्दगी में उतनी जगह ।

तिल-तिल मरता वो, जो जुनून से बचता है, करता है सफ़ेद को
काला और अदम्य मनोभावों के चक्रवात पर देता है “मैं” को तरजीह,
जो लाते हैं वापस आँखों की चमक, मुस्कानों और हिचकियों को,
लौटाते हैं भूलों और भावनाओं को दिलों की ओर ।

तिल-तिल मरता वो, जो काम की नाराज़गी पर भी नहीं उलटता मेज़,
सपने के पीछे भागते हुए अनिश्चित के लिए नहीं उठाता निश्चित का जोखिम,
जीवन में एक बार भी ठोस सलाहों से पलायन की नहीं कोई अनुमति ।

तिल-तिल मरता वो, जो न यात्रा करता, न पढ़ता है,
गाने-वाने भी नहीं सुनता, और उनमें उसके लिए न कोई मज़ा है ।

तिल-तिल मरता वो, जो ख़ुद के प्रेम को ही नष्ट करता है।
अवसाद है, एक गम्भीर रोग, विशेषज्ञ की मदद लाज़िमी है।
फिर मदद भी न करने दे, झुका लेता सिर रोज़ हार के सामने ।
  
तिल-तिल मरता वो, जो न कर्म करता, और न पठन-पाठन,
अक्सर विकल्प भी यही, क़िस्मत भी नहीं:
सरकार तब ख़ासी आबादी को तिल-तिल मार सकती है ।

तिल-तिल मरता वो, जो गुज़रते दिनों को कोसता है
या मूसलाधार बारिश, कुछ शुरू करने से पहले छोड़ देता उसे,
नहीं जानता कुछ, न किसी से पूछता है,
पूछो तो कुछ बोलता नहीं, क्या कुछ जानता है बताता भी नहीं ।
  
तिल-तिल मरते हैं बहुतेरे लोग, मौत भी है बहुत ही कृतघ्न औ कपटी,
सच्ची, जब वह क़रीब आती है, तब तक इतने टूट चुके होते हैं
कि बचा-खुचा समय गुज़ारने लायक भी नहीं होते हम ।

ख़ुदा करे ! कल का दिन देर से निकले, ताकि समूचा हमारा ही हो ।
कि अचानक आए अन्त को हम टाल भी नहीं सकते,
मौत से कुछ छोटी-छोटी किश्तों में तो बचें ।
ज़िन्दा रहने के लिए हमेशा याद रहे
साँस लेने से कम ज़रूरी नहीं अच्छी-खासी मशक़्क़त ।