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क्या हूँ मैं तुम्हारे लिए... / निर्मला पुतुल
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क्या हूँ मैं तुम्हारे लिए...?
एक तकिया
कि कहीं से थका-मांदा आया
और सिर टिका दिया
कोई खूँटी
कि ऊब, उदासी थकान से भरी
कमीज़ उतारकर टाँग दी
या आँगन में तनी अरगनी
कि घर-भर के कपड़े लाद दिए
कोई घर
कि सुबह निकला
शाम लौट आया
कोई डायरी
कि जब चाहा
कुछ न कुछ लिख दिया
या ख़ामोश खड़ी दीवार
कि जब जहाँ चाहा
कील ठोक दी
कोई गेंद
कि जब तब
जैसे चाहा उछाल दी
या कोई चादर
कि जब जहाँ जैसे-तैसे
ओढ-बिछा ली?
चुप क्यूँ हो!
कहो न, क्या हूँ मैं
तुम्हारे लिए ?
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