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लोकतंत्र / अनिल मिश्र

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उसकी जमीन में उगती हैं जनता की आकांक्षाएं
जल में उसके तरंगित होती हैं आम आदमी की खुशियां
वह हुक्म नहीं करता फैसलों को थोपता नहीं किसी पर
उसके अक्षय पात्र से मिटती है छोटे बड़ों की भूख
ये सपने रोज आते हैं
और आंख खुलते ही भाग जाते हैं कहीं हाथ छुड़ाकर

एक दिन असाध्य प्रमेयों के निकल आयेंगें हल
एक दिन जो छाया रहता है कुहासा छंट जाएगा
इस तरह की अपेक्षाएं इतनी अधिक होती हैं
जितना कोई अपनी संतान से भी नहीं करता
और उसके वायदे इतने तसल्ली बख्श हैं
जितना भगवान भी नहीं दे सकता

तमाम खुश खयाली के रंग में डूबे रहते हैं
दिन और रात बैठकें और चौपाल
भाग्यविधाता पहनकर आ जाते हैं नए चेहरे
जबकि बदलाव की वर्तनी में
ब से व तक कुछ भी नहीं बदला होता

तुम्हारी आवाज बन सकती है किसी दरबार की घंटी
तुम चाहो तो परछाइयों को फेंक कर मार सकते हो
नाफरमानी के जुर्म में लगा सकते हो कोड़े
मगर तुम इधर हो मोटी कांच की दीवार के इस पार
और वह उधर है तुम्हारी हरकतों पर मुस्कराता
और कहता कि देखो यही तो है अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता


धीरे धीरे छंट जाती है समय के साथ धुंध
और पहचान लिए जाते हैं चेहरे
जो आए थे आपके पास आसमान से उतरते
एकबारगी सभी पत्ते गिर जाते हैं बटवृक्ष के
और नए और चिकने पत्तों के निकलने का बढ़ जाता है आग्रह
बड़ा दिलचस्प खेल खेला जाता है समुद्र मंथन का
कि निकलेगा अमृत का घड़ा, कल्पवृक्ष और कामधेनु
कोहराम मच जाता है जब निकलता है कालकूट
और दहकने लगता है विष की ज्वाला में सारा विश्व
निरर्थकता का बोध जकड़ता जाता है हर आम और खास को
जलते जाते हैं नगर ग्राम गढ़ और मठ

युद्ध और प्यार के साथ लोकतंत्र में सब कुछ जायज है
इस सोच की जड़ें पकड़ती जा रहीं हैं राजनीति की जमीन
सेवक इतना बड़ा होता जाता है कि
उससे सेवा की कल्पना भी शर्मसार कर सकती है आपको
उसकी अमूर्त्तता में तसल्ली पाने की अभ्यस्त जनता
फिर विश्वास के लिए तैयार हो जाती है

उड़ान की अनन्त संभावनाएं देने वाला आकाश पंख नहीं देता
आपकी तकदीर भारी शिला बनकर जहां कि तहां रह जाती है
आंख खुलने पर धंसे पाए जाओगे उसी कीचड़ में
थोड़ा और डूबे थोड़ा और खोए हुए अपना बिश्वास
उगते नहीं हैं अगर समय रहते आपकी आत्मा में पंख