गीला सफ़ेद कपड़ा लपेट कर
जिसे हम सौंप आए हैं अग्नि को
इतनी जल्दी नहीं जाएगा वह
गड़ी रहेगी महीनों तक उसकी याद
पाँव में बबूल के काँटे की तरह
और धीरे-धीरे बहता रहेगा दुख
एक रौबदार आवाज़
अब कहीं सुनाई नहीं देगी
एक हँसता हुआ चेहरा
अब कभी दिखाई नहीं देगा
घर की लिपी हुई ज़मीन पर
कुछ रात जलता रहेगा एक दिया
फिर एक दिन वह बुझ जाएगा
बहुत दिनों तक डबडबाई रहेगी
इस घर की आँख
फिर एक दिन वह सूख जाएगी
कार्तिक की धूप में
एक दिन कठोर हो जाएगी ज़मीन
लेकिन कहीं भीतर कसमसाता रहेगा
भादों का पानी ।