Last modified on 18 जनवरी 2025, at 10:03

कृष्ण बन जाना / ऋचा दीपक कर्पे

Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:03, 18 जनवरी 2025 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=ऋचा दीपक कर्पे |अनुवादक= |संग्रह= }}...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

कदंब का पेड
यमुना तीरे होने से
और उसपर बैठ जाने से
क्या सचमुच कोई कृष्ण
बन जाता है?
क्या इतना आसान है
कृष्ण बन जाना ?

कृष्ण बनने के लिए
सहलाने होते हैं घाव
जो अपनों से ही मिले हैं
अपना अस्तित्व टिकाने के लिए
बूंद-बूंद गरल पीना पड़ता है..
अंदर से कठोर
बाहर से तरल होना पडता है..

क्षण क्षण में
मृत्यू का तांडव
कभी केशी कभी पूतना
कभी कालिया फन उठाता है,
तो कभी देवताओं का राजा
इंद्र रुष्ट हो जाता है..!

बंसी के अनहद नाद से
जगानी होती है
गोकुल में नई आशा
कृष्ण बनने के लिये
लिखना होती है प्रेम की
एक अलग परिभाषा

पल-दो-पल
का खेल नही
कृष्ण में राधा को
राधा में कृष्ण को
समाना होता है
और फिर एक दिन
'अवतार' सिद्ध करने हेतु
सबकुछ छोड़ जाना होता है...

राधा के प्रेम से दूर जा
गोपियों की मनुहार कर विफल
अपना शैशव यमुना में बहा
अचानक परिपक्व हो
करना होता है जन्म सफल

याद आती हैं
गोकुल की गलियाँ
यशोदा मैय्या की ममता
नंदबाबा का दुलार
राधारानी का प्यार
परंतु अंत तक
कर्म और धर्म को निभा
साधना होते हैं उद्येश्य सकल!

विजयश्री के बाद
नि:स्वार्थ मन से
अपेक्षा रहित होकर
सत्ता का लालच त्याग
जो आगे बढ़ जाता है
वह कृष्ण कहलाता है...

इतना ही नहीं,
धर्म युद्ध के समय
स्वयं सूत्रधार होकर
अपनी ही सेना को
दांव पर लगाना होता है
सत्य की विजय के लिए
असत्य का विकल्प भी
अपनाना होता है

कर्म का रथ हाँककर
धर्म का साथ देने हेतु
झेलना पड़ते हैं
कितनो के श्राप!
देखना पड़ते है रक्तरंजित शव
सुनना होते हैं असहनीय विलाप...

और अंत में,
उसी कदंब के पेड़ के नीचे
सारे कर्तव्यों से मुक्ति पाकर
बंशी की अंतिम तान छेडकर
ब्रह्माण्ड में विलीन हो जाना
इतना आसान नहीं है
कृष्ण बन जाना...