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ये हमारे दौर की उपलब्धियाँ / डी. एम. मिश्र

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ये हमारे दौर की उपलब्धियाँ
शहर की भी हो रहीं गुल बत्तियाँ

कौन पढ़ता है गरीबों की यहाँ
डस्टबिन में जा रहीं सब अर्जियाँ

होंठ पर तो बर्फ़ जैसे है जमी
आँख में ही कुछ बची हैं सुर्खियाँ

कल तलक जो शख़्स था घबरा रहा
उसकी भी चढ़ने लगीं अब त्योरियाँ

मौत के अतिरिक्त क्या बाँटेगा वो
जो ज़हर की कर रहा है खेतियाँ

फल की क्या उम्मीद हो उस पेड़ से
जो चबा जाता हो अपनी पत्तियाँ

लोग तो चेहरे पे हो जाते फ़िदा
देखता है कौन दिल की खूबियाँ