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अपना तेवर सँभाल कर रक्खो / डी. एम. मिश्र

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अपना तेवर सँभाल कर रक्खो
दिल के भीतर सँभाल कर रक्खो

जो लुटेरों की नज़र पर हों चढ़े
ऐसे जेवर सँभाल कर रक्खो

थोड़ा गुस्से पे भी पाओ काबू
ये बवंडर सँभाल कर रक्खो

हम निहत्थों के जो हथियार हों कल
ऐसे पत्थर सँभाल कर रक्खो

चोर डाकू भी गश्त पर हैं यहाँ
घर औ बाहर सँभाल कर रक्खो

वार करने में माना चूक गया
फिर भी ख़ंजर सँभाल कर रक्खो

लाखों हैं डोरे डालने वाले
अपना दिलबर सँभाल कर रक्खो

प्रेम से बढ़ के क्या है दुनिया में
ढाई अक्षर सँभाल कर रक्खो