Last modified on 11 दिसम्बर 2008, at 20:27

दिन में सौ बार आने लगा / जहीर कुरैशी

द्विजेन्द्र द्विज (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:27, 11 दिसम्बर 2008 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=जहीर कुरैशी |संग्रह=भीड़ में सबसे अलग / जहीर कुर...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

दिन में सौ बार आने लगा
ख़ुद पे धिक्कार आने लगा

देह को बेचते-बेचते
देह-व्यापार आने लगा

एक दो तीन के बाद में
ख़ुद-ब-ख़ुद चार आने लगा

उस फलों से लदे वृक्ष के
मन में आभार आने लगा

आजकल रूप के स्वप्न में
वो लगातार आने लगा

कोई आए न आए मगर
रोज़ अख़बार आने लगा

जो भी शामिल हुआ युद्ध में
उसको संहार आने लगा.