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सपने / श्रीनिवास श्रीकांत

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आते हैं वे कबूतरों की तरह
स्मृति की टहनियों पर नींद में
पत्तियों के बीच पर फडफ़ड़ाते
आते हैं वे गिलहरी की पूँछ के चँवर डुलाते
बिन बुलाए बेबस घुस आते निजी अहातों में

सपने :
न हुए जो कभी अपने

आते हैं वे हाथों में
रंग-बिरंगी झंडियाँ लिये
स्कूली बच्चों की तरह
आते हैं वे
एक के बाद एक गुच्छों में
गुब्बारों की तरह

देखते ही देखते हो जाते
आकाश में विलीन

खुलती घाटियों में
परबतों के साथ साथ
जब दूर-दूर भागता है चाँद
यादों की ढलानों पर तब
असंख्य कुकरमुत्तों की तरह
अचानक फूट पड़ते वे
भरा रहता जिनमें
मीठा-मीठा जहर भरा उन्माद
सदा के लिये सुला दें वो
जैसे दर्द-भरे दिलों को

दबाव में कभी-कभी
वे बदलते रहते
गिरगिट की तरह रंग
खोल कर रख देते
एक-एक कर हर गाँठ
जादू बाबा की पोटली से निकलते
अन्दर की ओर खुलते मायावी
वे कभी उड़ने लगते
ऊपर आकाश में
पंछियों की तरह
कभी डूबने-उछलने लगते
अथाह सागर में

डॉलफिनों की तरह
मायावी
जितने अन्दर उतने बाहर भी।